औऱ ये कैसा हो रहा विकास….? अराजकता की तीन कहानियां
रेवांचल टाईम्स – मंडला, आदिवासी बाहुल्य जिले के नगर से गाँव गाँव मे इतना विकास हो गया कि ढूंढ़ने से भी कभी कभी मिल पता है और अगर बात की जिले की नगर परिषद के हालात क्या है ये किसी से छुपा नही है,।
व्यक्ति की गलतियों अथवा स्वार्थ की वजह से व्यवस्था बनाने से कोइै भी जिम्मेदार विभाग इंकार नहीं कर सकता। व्यवस्था बनाना शासन, प्रशासन और स्थानीय निकायों की मूल जिम्मेदारी है। भूमि हर समय विवाद का विषय रही है। नगरीय क्षेत्रों में यह और भी जटिल समस्या है। बिछिया में जमीनों की समस्या के मूल में है भूखण्डों के नक्शों का ना कटना और प्रचलित मार्गों का निजी जमीनों से होकर गुजरना।
नगर विकास की योजनाओं में भूमि स्वामियों द्वारा आपत्ति उठाने के बाद अक्सर स्थानीय निकाय और शासन प्रशासन बेचारा साबित हुआ है। शासन-प्रशासन की इसी बेचारगी को दर्शाती है अराजकता की ये 3 कहानियां। व्यवस्था बनाना, जमीनों का व्यवस्थापन आखिर किसकी जिम्मेदारी हैं, शासन प्रशासन या आम जनता की?
कहानी नंबर 1
वही जानकारी के अनुसार सरकार विकास के नाम पर पानी की तरह पैसा बहा रही है पर अधिकांश विकास कागजों तक ही सिमट कर रह गया, वही बिछिया वार्ड नंबर 10, राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज खसरा नंबर 150 और 151 की भूमि पर अनेक छोटे-छोटे खसरों में भूखंड बटे हैं। अपनी हैसियत के अनुसार लोगों ने उन्हें खरीदकर उन पर अपने मकान बना लिए हैं। जिन्होंने नहीं बनाये उन्होंने अपने भूखण्ड बाहर के बाहर ही बेच दिए। यहां के रहवासी खसरा क्रमांक 155 में 8×40 के भूूखण्ड पर बने प्रचलित मार्ग से ही आना जाना करते रहे हैं। यहीे नहीं अन्य वार्ड और गांव से आने वाले कई स्कूली छात्र और अन्य नागरिक भी इसी मार्ग से आना जाना करते हैं। इस मार्ग के एक साइड पर स्ट्रीट लाईट का पोल है। इस विद्युत पोल से अनेक घरों के विद्युत कनेक्शन जुड़े हैं। दूसरी साइड पर नगरपालिका की जल सप्लाई की पाईप लाइन है। इस मार्ग की जमीन के मूल स्वामी गोपी नायक रहे हैं। यह जमीन दो बार बिकी पर वार्ड वासियों को जानकारी नहीं लग पाई। आज यह प्रचलित मार्ग कथित तौर से श्रीमती रामप्यारी के भूखंड में समाहित हो गया है। नगरीय सीमा में निर्माण के लिए नगर परिषद से मिलने वाली एन ओ सी में 5 डिसमिल के भूखण्ड पर अधिकतम 1700 वर्ग फीट पर भवन निर्माण की अनुमति मिल सकती है। जबकि श्रीमति रामप्यारी लगभग 2 हजार वर्ग फीट पर भवन निर्माण कर चुकी है। बाद में अपने नव निर्मित भवन के पिछले हिस्से में रहनेवाले मुस्लिम परिवारों के साथ विवाद के चलते उन्होंने अपने मकान से लगे इस प्रचलित मार्ग को बंद कर दिया। 150 और 151 के रहवासियों को आने-जाने के लिए एक दूसरे के घरों और आंगन से गुजरना पड़ रहा है। विवाद अभी जारी है। शांति व्यवस्था भंग होने की प्रबल संभावना है। बहरहाल विवादित स्थल पर निर्माण कार्य हेतु अनुविभागीय दंडाधिकारी बिछिया की न्यायालय से अस्थायी स्टे है। अनुविभागीय दंडाधिकारी की न्यायालय से स्टे होने के बावजूद बिछिया थाने के एक उप निरीक्षक ने मौके पर पहुंचकर निर्माण कार्य जारी रखवाते उक्त रास्ते को बंद करवा दिया!
कहानी नंबर 2
कहानी कब्रिस्तान की….
वही आज भी कब्रिस्तान का प्रचलित मार्ग कई सालों से भूमि स्वामी हक की जमीन से होकर गुजरता था। बाद में भूमि स्वामी ने इस रास्ते को बंद कर दिया तब काफी विवाद भी हुआ। कब्रिस्तान आने-जाने के लिए मुस्लिम समुदाय के लोगों को अनेकों दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था! आखिरकार जनप्रतिनिधियों और स्थानीय प्रशासन के प्रयास से वार्ड नंबर 2 में नाले के किनारे किनारे कब्रिस्तान के लिए रास्ता निकाला गया। सर्वे और राजस्व विभाग की मदद से बाद में इस रास्तें को राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज किया गया। रास्ते को राजस्व रिकॉर्ड में लेकर तो आ गये लेकिन धरातल पर इसे नहीं उतार पाये। प्रचलित रास्ता मार्ग बंद हो गया और रिकार्ड में दर्ज रास्ता जमीन पर उतर ही नहीं पाया। रिकार्ड में दर्ज रास्ते को जमीन पर उतारने के जब-जब प्रयास हुए, विवाद की स्थिति बनी। प्रशासन ने इस मार्ग को बनाने में बाद में कोई रुचि नहीं दिखाई। मजेदार बात ये है कि इस मार्ग का सत्ता पक्ष के प्रतिनिधियों ने ही भूमि पूजन किया था और इन्हीं से जुड़े प्रतिनिधियों ने इसे बनने नहीं दिया।
कहानी नंबर 3
वही कहानी नंबर दो से ही निकलती है कहानी नंबर तीन! जब कब्रिस्तान के लिए कहीं से रास्ता नहीं रह गया तब भुआ से होते हुए खेतो झाड़ियों से होकर रास्ता निकाला गया! इस रास्ते को अमली जामा पहनाने में भी जो दिक्कतें थीं एक तो रास्ता शिवकुमार और भाइयों के सामूहिक खाते में दर्ज निजी जमीन से होकर निकाला जा रहा था। दूसरा कब्रिस्तान पहुंच मार्ग के बीच नाला था। पहले दिक्कत से तो आसानी से पार हो गए क्योंकि शिवकुमार और उसके भाई दबंग नहीं थे। उनकी तरफ से वकालत करनेवाला भी कोई नहीं था। फिर भी अपनी समझ और क्षमता के मुताबिक शिवकुमार ने तहसील कार्यालय में अपनी आपत्ति पेश की थी। बाद में अचानक से एक अटैक के चलते शिवकुमार परते की मृत्यु हो गई और परिवार की ओर से तहसील में बातें रखनेवाला कोई शख्स नहीं रह गया। इस प्रकार मार्ग के लिए पूर्ण सहमति के बगैर एक आदिवासी परिवार की जमीन ले ली गई।
दूसरी दिक्कत से पार होने के लिए आनन-फानन में पुलियों की व्यवस्था की गई और मिट्टी डालकर नाले पर से रास्ता बना दिया गया! नगर पालिका की के प्रतिनिधियों की जिद के आगे राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज रास्ता तो नहीं बन पाया लेकिन निजी जमीनों पर से रास्ते खींच दिए गए! यहां गौर तलब है कि राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज रास्ते के लिए भी प्रस्ताव नगर पालिका द्वारा ही दिया गया था.
रास्ता क्या है….?
रास्ता नगर परिषद से निकलेगा और राजस्व विभाग में उच्च स्तर तक पहुुंचकर खत्म होगा। नगर परिषद को चाहिए कि आम प्रचलित रास्ते, पाईप लाईनों की जमीने, स्टीट लाईन के खम्बों आदि जन उपयोगी भूमियों का सर्वे कर उनके मद परिवर्तन कराने प्रस्ताव करे। राजस्व विभाग के उच्च स्तर तक यह कार्यवाही सुनिश्चित हो। लगातार इसका फालोअप होता।