संयम धर्म व्रती नगरी पिंडरई (मंडला ) मनिश्री समतासागरजी महाराज

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रेवांचल टाईम्स – मंडला, जिले के पिंडरई में पर्व का छठवाँ दिन है। दसलक्षणों में इसे संयम घर्म कहा है। इसे बन्धन का दिन भी कह सकते हैं। पर यह बन्धन दुःखदाई नहीं अपितु दुःखों से छुटकारा पाने के लिए वन्दन अभिनन्दन रूप है। नदी बहती है पर उसे तट का आलम्बन जरूरी रहता है। यदि नदी बिना तटों के बहे तो अपने लक्ष्य सागर तक नहीं पहुँच सकती। कहीं भी फैलकर सूख जाती है। नदी की सुरक्षा और विस्तार के लिये तटों का बंधन जरूरी है। जीवन भी इसी तरह का है। जीवन की नदी के लिये संयम के तटों का बंधन अनिवार्य है। संयमित जीवन ही अपने अनन्त सुख के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। असंयत और अनियंत्रित नदी तो सिर्फ विभीषिका ही करती है। पांच महाव्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, चार कषार्यों का निग्रह करना, मन वचन काय रूप तीन दण्डों का त्याग करना और पाँचों इन्द्रियों को जीतना ही संयम कहा गया है।

प्राणि और इन्द्रिय संयम के भेद से यह संयम दो प्रकार का है। त्रस और स्थावर प्राणियों की रक्षा करना प्राणि संयम है और पंचेन्द्रिय के विषयों से विरत तथा मन की आकांक्षाओं पर नियंत्रण यही इन्द्रिय संयम है।

नियंत्रण बहुत जरूरी है। अश्व को लगाम, हाथी को अंकुश, ऊंट को नकेल और साइकिल स्कूटर आदि वाहनों के लिये ब्रेक जरूरी है। ब्रेक है तो सुरक्षा, नहीं तो एक्सीडेन्ट। लगाम है तो हार्सपावर (अश्व) नियंत्रित अन्यथा अनियंत्रित । अंकुश है तो हाथी राह पर नहीं तो उन्मत्त स्वच्छन्द । सच ही तो कहा है कि ब्रेक है तो कार, नहीं तो बेकार। असंयत जीवन की बस तो ऐसी बस है जिसमें हार्न को छोड़कर सब कुछ बजता है और ब्रेक को छोड़कर सब कुछ लगता है। ऐसी स्थिति में जीवन की गाड़ी का क्या होगा? हम व्यवहारिक क्षेत्र में खान-पान में शुद्धि, बोलचाल में मृदुता और व्यवहार में विनम्रता सौजन्यता तथा रहन सहन में सादगी रखकर पारिवारिक और पारंपारिक मर्यादाओं का पालन कर वर्तमान युग में बहोत जरूरी संयम का परिचय दे सकते हैं।
उक्त जानकारी मीडिया प्रभारी के प्रमुख ऋषभ जैन द्वारा दी गई।

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