खरी-अखरी इस पुंगी को खूब बजा लिया गया, अब इसको खाने की बारी !

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क्या दुनिया के सबसे बड़े अनरजिस्टर्ड संंघ के दुर्दिन की सुपारी अपनों ने ली है ?

रेवांचल टाईम्स डेस्क – भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा ने बिना किसी लाग-लपेट के भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच वर्तमान संबंधों को लेकर एक इंटरव्यू में कहा कि “जब उनकी पार्टी छोटी और आज की तरह सक्षम नहीं थी, उस समय वह संघ की मदद लेती थी, लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है। पार्टी का विस्तार हो चुका है और उसकी क्षमता बढ़ चुकी है” । कहने को तो ऐ वाक्य पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा के मुंह से निकले हैं परन्तु न केवल राजनीति की विशिष्ट जानकारी रखने वाले बल्कि राजनीति का ककहरा पढ़ने वाले भी जानते हैं कि वर्तमान में मोदीमय हो चुकी भाजपा के भीतर पार्टी अध्यक्ष की हैसियत क्या है ! इसलिए बिना संकोच यह कहा जा सकता है कि नड्डा ने जो कुछ भी कहा है उसकी स्क्रिप्ट नरेन्द्र मोदी के ईशारे पर ही लिखी हुई है और उनके द्वारा दिखाई गई हरी झंडी के बाद ही सामने आई है !

भले ही यह सब आज सामने आया है मगर वैसे देखा जाए तो यह सब अचानक नहीं हुआ है। इसकी नींव तो उसी दिन पड़ गई थी जब आरएसएस ने भाजपा में जिला स्तर पर संघ प्रचारकों को बतौर संगठन मंत्री नियुक्त करना शुरू किया था। भाजपा में संघ प्रचारकों को संगठन मंत्री बनाने के पीछे संघ की सोच थी कि राजनीति में फिसलन और गंदगी बहुत है। संघ प्रचारक वहां जाकर गंदगी और फिसलन दूर कर राजनेताओं को सुचिता का पाठ पढ़ायेंगे मगर हुआ उसका उल्टा। देखने में आया कि संगठन मंत्री खुद उस गंदगी और फिसलन को आत्मसात कर यह कहते हुए नाचने लगे कि “आज रपट जायं तो हमें ना उठाईयो, हमें जो उठाईयो तो खुद भी रपट जईयो”। यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि प्रचारकों को राजनीतिक रक्त का ऐसा नशा चढ़ा कि वे नागपुर के आदेश तक की अवहेलना करने से भी नहीं चूके। उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश में पदस्थ रहे संघ प्रचारक तत्कालीन प्रादेशिक संगठन मंत्री कप्तान सिंह सोलंकी का नाम लिया जा सकता है जिसने नागपुर स्थित संघ हेडक्वार्टर में सालभर में एकबार आयोजित होने वाली अखिल भारतीय प्रचारक बैठक में भाग लेने के बजाय भाजपा की बैठक में उपस्थित रहने को तरजीह दी थी और यह संभवतः नागपुरी आदेश की अवहेलना का पहला मामला था जिसका ईनाम भी कप्तान सिंह सोलंकी को भाजपा ने राज्यपाल बनाकर दिया था। इसके बाद तो कई संघी राज्यपाल बने ही कुछ को तो भाजपा का प्रवक्ता तक बनाया गया। मतलब जो संघ कभी परदे के पीछे रहकर भाजपा का काम करता था अब खुलकर फ्रंट लाईन पर आकर भाजपा का प्रचार करने लगा !

अटल – अडवाणी वाली भाजपा को तो 2014 में ही जमींदोज करके नरेन्द्र मोदी ने उसी के ऊपर मोदी – शाह की भाजपा को स्थापित किया है। अटल – आडवाणी जैसी राजनीतिक वजूद वाली शख्सियत भी आरएसएस प्रमुख के कहे को टालने की हिम्मत नहीं कर पाती थी। कहा जाता है कि उसके पीछे सबसे बड़ा कारण सरसंघचालक की महत्वाकांक्षी प्रवृत्ति का ना होना था। शायद ही कोई ऐसा उदाहरण हो कि अटल सरकार के दौरान संघ प्रमुख ने सत्ता सुख का रसास्वादन किया हो। सरसंघचालक के लिए उसका स्वयंसेवक ही सर्वोपरि था। मगर जबसे मोहन भागवत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक की गद्दी संभाली है तबसे देखा गया है कि लगातार संघ की गरिमा का अधोपतन होता चला गया है और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा ने संघ और भाजपा के ताजा संबंधों पर इंटरव्यू देकर संघ की अधोगति में आखिरी कील ही ठोंक दी है !

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीबियों का कहना है कि सरसंघचालक मोहन भागवत शायद पहले ऐसे सरसंघचालक हैं जिनके कहे की देशभर में सर्वाधिक सामाजिक आलोचना हुई है क्योंकि उनका कहा समाज को दिशा देने के बजाय पूरी तरह राजनीतिक रंग में रंगा हुआ भाजपा की तरफदारी करता हुआ होता है साथ ही सुदर्शन तक किसी भी सरसंघचालक ने सरकारी सुरक्षा व्यवस्था स्वीकार नहीं की थी। संघ का स्वयंसेवक ही उनका सुरक्षा सैनिक हुआ करता था। मोदी सरकार द्वारा दी गई जेड प्लस सुरक्षा ने सरसंघचालक और स्वयंसेवकों के बीच दीवार खड़ी कर दी। मोहन भागवत के सरसंघचालक बनने के बाद से ही ऐसा दिखाई देने लगा कि भाजपा का पितृ संगठन कहे जाने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनता पार्टी की बी टीम में बदलता चला जा रहा है नागपुर से गांव की गलियों तक।

गुजरात से लेकर दिल्ली तक की राजनीति बताती है कि नरेन्द्र मोदी को किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं है और अगर किसी ने ऐसा किया तो उसे हरहाल में साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाकर किनारे लगा दिया जाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में जीत मिलने के बाद सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा था कि “भाजपा को जीत किसी एक व्यक्ति की वजह से नहीं मिली है। इसे किसी व्यक्ति – विशेष की विजय मानना ठीक नहीं है”। स्वाभाविक रूप से इसे अतिआत्ममुग्धी, अतिआत्मप्रसंशी नरेन्द्र मोदी ने अपने पर कटाक्ष समझा होगा। इसके बाद 2015 में सरसंघचालक मोहन भागवत ने दिल्ली में मध्यप्रदेश सरकार के मध्यांचल नामक भवन में केन्द्र सरकार के मंत्रियों को तीन दिन तक एक-एक को तलब करके भाजपा पर अपने नियंत्रण का इजहार किया था। भागवत की इस जबाव तलबी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी हाजिरी लगानी पड़ी थी। संघ के पन्द्रह संगठनों के मुखियाओं ने इस बैठक में सरकार के सामने कई सवाल किए थे। मगर इसके बाद पिछले 9 साल में सरसंघचालक मोहन भागवत ऐसी दूसरी बैठक आयोजित नहीं कर सके। 2015 की बैठक अपने तरह की आखिरी बैठक बनकर रह गई। यह भी कि आरएसएस से जुड़े भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, किसान संघ जैसे तमाम संगठन में जो अटल बिहारी सरकार की जन, श्रमिक, किसान विरोधी आदि नीतियों की खिलाफत करने सड़कों पर उतर कर धरना प्रदर्शन किया करते थे आज मंहगाई, बेरोजगारी, भृष्टाचार, बिगड़ती कानून व्यवस्था के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के लिए बगलें झांकते नजर आते हैं। कई मौकों पर तो ये मोदी सरकार की खिलाफत करने वालों के सामने ही मोदी सरकार की ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं।

हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा होने के बावजूद संघ अतिशय व्यक्तिवाद को पसंद नहीं करता है और आज की भाजपा पिछले दस सालों में नख से शिख तक व्यक्तिवादी (नरेन्द्र मोदी मय) हो चुकी है। पिछले 9 सालों में नरेन्द्र मोदी ने भाजपा को आरएसएस की जबाव तलबी से मुक्त कर दिया है। यहां तक कि संघ प्रमुख के कहे की भी अनदेखी की जाने लगी है। अटल सरकार की बनिस्पत मोदी सरकार में संघियों की संख्या भी कम है। तभी तो 2019 की पूर्व संध्या पर संघ के इस आग्रह को ठुकरा दिया गया था कि “राम मंदिर बनवाने के लिए संसद को कानून बनाना चाहिए” । राम मंदिर में नवनिर्मित राम मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के लाइव टेलीकास्ट में स्वयंसेवकों ने अपनी नंगी आंखों देखा ही होगा कि मोदी द्वारा किस तरह से सरसंघचालक मोहन भागवत को दोयम पायदान पर रखा गया था।

मोदी और भागवत काल में भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वैचारिक अधोपतन हुआ हो परन्तु भाजपा के राजनीतिक प्रभुत्व का लाभ भी संघ को भरपूर मिला है। स्वयंसेवकों का मेलमिलाप संघ कार्यालय से निकल कर पांच सितारा होटलों तक जा पहुंचा है। रेल के जनरल कोच में सफर करने वाले संघ के दायित्वाधीन अब वातानुकूलित कोचों और लक्जरी कारों में सफर करने लगे हैं। स्वदेशी का उपयोग अब जुमला बनकर रह गया है। कह सकते हैं कि शाखा विस्तार के चक्कर में भाजपा की पार्टी विस्तार और राज्यों में सत्ता हवस की खातिर भृष्टाचारियों का प्रवेश और दोपायों की खरीद-फरोख्त पर संघ प्रमुख की खामोशी ने भी संघ के वैचारिक पतन पर अच्छा खासा योगदान दिया है। संघ के भीतर भी ऐसे लोग तैनात होने लगे हैं जो संघ के वैचारिक पतन पर शर्मिंदा होने से ज्यादा भाजपा के बढ़ते प्रभुत्व पर इतरा रहे हैं। तभी न भाजपा अध्यक्ष का संघ को उसका सही स्थान दिखाने वाला बयान आने के बाद से अब तक न तो संघ के उच्चाधिकारियों ने मुंह खोला है न ही संघ स्वयंसेवकों की तरफ से कोई प्रतिक्रिया आई है।

जैसा कि कहा जा रहा है कि 2024 के चुनाव में यदि भाजपा एक्सीडेंटल 400 पार के अपने जुमले को साकार कर लेती है और नरेन्द्र मोदी फिर से प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो संघ की कमान भी मोदी के मनमुताबिक उनके किसी चहेते को सौंपी जायेगी मतलब नियंत्रक खुद नियंत्रित होने लगेगा । क्या जे पी नड्डा का कहा उसी दिशा की ओर तो ईशारा नहीं कर रहा है !

अक्टूबर 1951 में भारतीय जनसंघ को स्थापित करने के बाद संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवालकर ‘गुरुजी’ ने कहा था कि जनसंघ गज्जर की पुंगी है, जब तक बजेगी बजायेंगे और जब नहीं बजेगी तो खा जायेंगे। मगर क्या आज सरसंघचालक डाॅ मोहन भागवत भाजपा के लिए ऐसा कह सकते हैं ? नड्डा का बयान तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ही गज्जर की पुंगी बताते हुए कह रहा है कि इस पुंगी को खूब बजा लिया गया है अब इसको खाने की बारी है।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार

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