खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) एमपी में क्षत्रपों से छुटकारा पाने छटपटा रही कांग्रेस

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रेवांचल टाईम्स – राष्ट्रीय स्तर पर भले ही कांग्रेस ने अपने सांसदों का आंकड़ा सैकड़ा भर कर लिया है मगर मध्यप्रदेश में तो वह 2019 के एकमात्र सांसद को भी गवां बैठी है। मतलब सूपड़ा साफ हो गया है। जिसका ठीकरा प्रदेशाध्यक्ष जीतू पटवारी के सिर फोड़ने की आवाजें सुनाई पड़ रही है। कहते हैं कि जीतू ने चुनाव परिणाम के बाद आलाकमान के सामने हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोड़ने का प्रस्ताव रखा था मगर आलाकमान ने उसकी बातों को अनसुना कर दिया है। जिससे कई छत्रपों का सुख चैन छिन सा गया है। खबर है कि अब वे एकजुट होकर पटवारी से जरीब छीनने की प्लानिंग करने में लग गए हैं। देखा जाए तो जीतू पटवारी को प्रदेश अध्यक्ष की कमान 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति हो जाने के बाद सौंपी गई है। जीतू अभी तक अपनी टीम तक नहीं बना पाया। कह सकते हैं कि सेनापति बिना सिपहसलारों के महासंग्राम में जूझ रहा था। देखा जाय तो कांग्रेस को इस स्थिति में आस्तीनी सांपों ने ही पहुंचाया है जिसमें आलाकमान भी जिम्मेदार है कारण वही लम्बे समय से वह इन विषधरों को पालता पोषता आया है। खरी – अखरी ने अपने 24 अप्रैल 2024 के आलेख में लिखा था कि “आस्तीनी सांपों से डसे जाने का दोष भाजपा पर मढ़ना ठीक नहीं” । मध्यप्रदेश कांग्रेस पर समसामयिक कहा जा सकता है कि “जब चुना ही था हाथों में खंजर का हुनर देखकर, तो फिर क्यों हैरान होते हो लाशों का शहर देखकर” ।

2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने मामूली बढ़त के साथ कमलनाथ के नेतृत्व में सरकार बनाई थी। मगर आलाकमान की अदूरदर्शिता और भाजपा की सत्ताई भूख के चलते ज्योतिरादित्य सिंधिया और उसके चरणवंदित सिपहसलारों ने अपनी सत्ताई महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पाला बदलते हुए भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया था । जिसका भरपूर ईनाम भी तथाकथित दलबदलुओं को मिला था । तब कायदे से तत्कालीन मुख्यमंत्री सह प्रदेशाध्यक्ष वयोवृद्ध कमलनाथ को त्यागपत्र दे देना चाहिए था मगर जब ऐसा नहीं होता दिखा तो आलाकमान ने फैसला लेते हुए प्रदेश पार्टी की बागडोर युवा जीतू पटवारी के हाथों सौंप दी। देखने वाली बात यह भी है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस कुछ वरिष्ठ नेताओं के पंजे में फंसी हुई है जो उस पर अपनी पकड़ को ढीला नहीं करना चाहते भले ही बच्चे की जान चली जाय। जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह ‘राहुल’ अरुण यादव का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इतना ही नहीं इन लोगों ने तो अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में कांग्रेस को इतने गुटों में बांट कर रख दिया है कि उसे टुकड़े-टुकड़े गैंग कहा जा सकता है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के दुर्दिनों की नींव रखने का काम दिग्विजय सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में ही कर दिया था। उन दिनों जहां एक ओर प्रदेश की सड़कें और बिजली आम आदमी को खून के आंसू रुला रही थी तो दूसरी ओर सत्ता का अहंकार दिग्विजय सिंह के सिर चढ़कर बोल रहा था। उन्होंने तो जनता से कुछ ऐसा भी कह दिया था कि वोट देना हो तो देना ना देना हो तो मत देना। चुनाव जनता के वोट से नहीं मैनेजमेंट से जीते जाते हैं। दो दशक से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद भी प्रदेशवासियों के मर्मस्थल पर लगे उन दिनों के घाव दिग्विजय सिंह का नाम सुनते ही आज भी हरे-भरे होकर टीस देने लगते हैं। लोगों का तो यहां तक मानना – कहना है कि जब तक मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की जरा सी भी दखलंदाजी रहेगी प्रदेश में कांग्रेस के अच्छे दिन आ ही नहीं सकते हैं।

2023 में जब कांग्रेस मध्यप्रदेश में सरकार बनाने से नाकामयाब रही तो पार्टी के कई कद्दावर कहे जाने वाले कांग्रेसियों में भाजपा ज्वाइन करने की होड़ सी लग गई। ये सिलसिला लोकसभा चुनाव में परचा दाखिल करने तक चलता रहा। इंदौर में तो कांग्रेस प्रत्याशी ने भाजपा नेताओं के कांधे बैठकर अपना फार्म तक वापस ले लिया और कांग्रेस को कहीं का नहीं रख्खा। वैसे इसका जबाव इंदौर के मतदाताओं ने अपने हिसाब से नोटा में वोट देकर किया है। देश में नोटा में सर्वाधिक मत इंदौर में ही पड़े हैं। कायदे से तो इस रिकार्ड की एंट्री गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज की जानी चाहिए। लोकसभा चुनाव के पहले तो यह भी कयास लगाए जा रहे थे कि कमलनाथ और उनके पुत्र नकुलनाथ भाजपा का दामन थामने वाले हैं। दिल्ली में कमलनाथ की भाजपा हाईकमान वाली मुलाकात ने भी ऐसे ही संकेत दिए थे। मगर बात आई – गई हो गई। तब खरी – अखरी ने 9 मार्च 2024 के आलेख में लिखा था कि “बुढिया तो बच गई मगर मौत घर देख गई”।

2023 के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में नजर डालें तो सबसे बड़ा झटका कमलनाथ को लगा है। जहां वे अपनी परम्परागत लोकसभा सीट छिंदवाड़ा से अपने पुत्र की सांसदी तक गवां बैठे। इतना ही नहीं संसदीय क्षेत्र में आने वाले विधानसभा में एक भी विधानसभा में अपने पुत्र कांग्रेस प्रत्याशी नकुलनाथ को एक वोट की भी बढ़त तक नहीं दिला पाये जबकि चंद महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में सारी सीटें कांग्रेस के खाते में गई थी। छिंदवाड़ा लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार कमलनाथ ने तब जीत हासिल की थी जब इमर्जेंसी के बाद बाद हुए लोकसभा चुनाव में देशभर में कांग्रेस लगभग हासिये पर चली गई थी।

अनाथों जैसी हालत में पहुंच चुकी कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के बजाय कांग्रेस के छत्रप कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, अजय सिंह ‘राहुल’, अरुण यादव वर्तमान अध्यक्ष जीतू पटवारी को पदच्युत करने के गुडकतान में लगे दिखाई दे रहे हैं । जिनमें से कुछ तो अपने लड़के की ताजपोशी चाहते हैं तो कुछ खुद मुकुट पहनना चाहते हैं। जमीनी हालातों पर गौर किया जाय तो मध्यप्रदेश में अब कांग्रेस को खोने के लिए कुछ बचा नहीं है। निकट भविष्य में कोई बड़ा चुनाव भी नहीं हैं। जो भी चुनौतियां हैं वे 2028, 2029 में है। इसलिए बेहतर होगा कि कांग्रेस आलाकमान मध्यप्रदेश के सभी छत्रपों को मार्गदर्शक मंडल में भेज कर किसी नये नवेले (छत्रपों की गुटबाजी से मुक्त) युवा को प्रदेश की बागडोर सौंपे। जो युवा पीढ़ी को साथ लेकर लकवाग्रस्त कांग्रेस को अपने पैरों पर खड़ा कर सके।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार

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