क्षमा, समता आत्मा का स्वभाव

23

 

रेवांचल टाईम्स – मंडला व्रती नगरी पिंडरई आज से पयुर्षण पर्व प्रारंभ हो गया है इसे जैन परंपरा में दशलक्षण पर्व भी कहते हैं। इन दिनों में आत्मा के विशुद्ध गुणों की आराधना की जाती है। अनादि काल से संसारी प्राणीयों में विभाव कर्मों का प्रभाव है जो आत्मा के स्वाभाविक गुणों को ढके हुए है। इन्हीं विभावभावों को दूर कर स्वाभाविक गुणों की आराधना, भक्ती पूजा, स्वाध्याय और संयम आदि रूप दिनचर्या बनाकर इन दिनों में की जाती है। दशलक्षण धर्मो में पहला धर्म उत्तम क्षमा का है। क्षमा आत्मा का स्वाभाविक धर्म है किन्तु हम इसे प्राप्त ना कर इसके विरोधी तत्त्व क्रोध के वशीभूत हुए हैं। क्रोध एक कषाय है जो अज्ञानता से प्रारंभ होती है और अंधे तथा उन्मादी या पागल व्यक्ति की तरह कुछ भी कृत्य घटित करने की स्थिती में आ जाती है। ऐसे क्रोध उत्पन्न होने के कारणों में रुचि भेद, चिंतन भेद, आग्रही स्वभाव, स्वार्थ या गलतफॅमी जैसे प्रमुख कारण बनते हैं। जिसके दुष्परिणामों में घर परिवार में कलह, बुराई और बैर का वातावरण बनता है यू कहें स्वर्ग सा सुन्दर वातावरण नरक में तब्दील हो जाता है। ऐसे क्रोध और क्रोध के दुष्परिणामों को सारा संसार भुगत रहा है। क्रोध पर नियंत्रण करने के उपायों में सहष्णुता का विकास, समग्रता का चिंतन, विनोद प्रियता, स्थान परिवर्तन और मौन आदि हैं। स्वार्थ और मजबूरी में की गई क्षमा यथार्थ क्षमा नहीं है बल्कि समर्थ और सक्षम होते हुए भी प्रतिकूल परिस्थितीयों का प्रतिकार नहीं करना तथा शान्त समताभावों से उसे सहन करना ही सच्ची क्षमा है। इस सिद्धांत को अपनाने वाला गाली का उत्तर गाली से नहीं बल्की सद्भावना और गीत से देता है। भगवान महावीर और राम के जीवन आदर्शों से प्रेरित होकर महात्मा गांधी ने जिन सिद्धांतो को अपनाया उनसे हमें भी प्रेरणा लेनी चाहिए ।

उक्त जानकारी व्रती नगरी पिंडरई में विराजमान पंचम निर्यापक श्रमण मुनि श्री समता सागर महाराज ने साधु सेवा समिति के प्रभारी ऋषभ जैन को दी।

instagram 1
Leave A Reply

Your email address will not be published.