“गाय-भैंस योजना में घोटाला! आदिवासियों को मिला इंतज़ार, अफसरों को मिला मालामाल!”
दैनिक रेवांचल टाइम्स| क्या आदिवासी योजनाओं का यही हश्र होना तय है? मंडला जिले में चल रही ‘राष्ट्रीय मानव सहायता योजना’ को देखकर तो यही लगता है। सरकार ने बैगा आदिवासियों के लिए जो गाय, बैल और भैंसें भेजीं, वो रास्ता भटक गईं या जानबूझकर भटकाई गईं….और पहुँच गईं स्टाफ और अफसरों के घरों में!
सरकारी रिकॉर्ड्स में जानवर ‘बाँट’ दिए गए, लेकिन ज़मीनी हकीकत में ये ‘बिक’ गए या ‘बसा’ दिए गए….बीएम और एबीएम के घरों में। जिन गरीब आदिवासियों के हिस्से की मदद थी, वो आज भी खाली हाथ हैं, जबकि अफसरों की बाड़ों में दूध की नदियाँ बह रही हैं।
सरकारी योजनाएं: बैगाओं के नाम, लेकिन कर्मचारियों के काम!
एनआरएलएम कार्यालय की करतूतें अब किसी से छुपी नहीं हैं। कभी कमीशनखोरी तो कभी फर्जी लाभार्थी, और अब पालतू जानवरों का बेजा वितरण। एक कर्मचारी मुकेश नंदा के पास गाय, तो राजकुमार यादव के घर भैंस….क्या ये संयोग है? नहीं, ये सुनियोजित लूट है, आदिवासियों के हक पर सुनहरा तमाचा।
कागज़ों में योजनाएं, ज़मीन पर अफसरों का ऐशो-आराम।
कभी पर्यावरण मित्र के नाम पर स्कूटी स्टाफ की बहुओं के लिए चली जाती है, तो कभी ग्राम संगठन के पैसों से स्टाफ के बंगले सजते हैं। डीपीएम, बीएम, एबीएम….सबने इस लूट में एक-दूसरे का साथ निभाया है, मानो ये आदिवासी विकास नहीं, कोई ‘साझा कारोबार’ हो।
“हमारे लिए कोई जानवर नहीं आया, हमें कभी नहीं मिला” …. रामू बैगा, ग्रामीण
रामू जैसे कई बैगा आदिवासी हाथ जोड़कर यह कह रहे हैं, जबकि अफसरों के बच्चों तक को दूध की कमी नहीं। क्या यही ‘जनकल्याण’ है?
अगर लोकायुक्त जांच करे तो खुलेंगे करोड़ों के भेद!
जो कर्मचारी पहले दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करते थे, आज वे कार, प्लॉट, शोरूम, बंगले और पालतू जानवरों के मालिक हैं। सवाल ये नहीं कि इनके पास क्या है, सवाल ये है कि आदिवासियों के हिस्से का क्या नहीं बचा? जब सरकारी गाय-भैंसें भी रिश्वत बन जाएं, तो क्या बचेगा इस तंत्र में भरोसे के नाम पर?
