काशी विश्वनाथ वैदिक गुरुकुल में ब्रह्मचारियों का वैदिक उपनयन संस्कार संपन्न
मंडला।
उत्तरायण काल, वैशाख मास की अमावस्या, ग्रीष्म ऋतु की प्रखरता और रविवार का पावन संयोग — इस विशिष्ट अवसर पर आज काशी विश्वनाथ वैदिक गुरुकुल में नवागंतुक बटुक ब्रह्मचारियों का वैदिक विधि-विधान से उपनयन संस्कार संपन्न हुआ।
गुरुकुल के आचार्य भीमदेव जी के ब्रह्मत्व निर्देशन में सम्पन्न इस पवित्र संस्कार में ब्रह्मचारियों को यज्ञोपवीत धारण कराया गया। यज्ञोपवीत धारण करना मात्र एक परंपरा नहीं, बल्कि यह एक गहन दायित्व का प्रतीक है — जो ब्रह्मचारी को सदा यह स्मरण कराता है कि वह ऋषियों, देवताओं तथा पितरों का ऋणी है। इन ऋणों से उऋण होने के लिए तप, अध्ययन और सेवा का व्रत धारण करना ही उसके जीवन का उद्देश्य है।
संस्कार का आध्यात्मिक महत्त्व
यज्ञोपवीत संस्कार भारतीय सनातन परंपरा में ‘द्विजत्व’ की प्रथम सीढ़ी माना जाता है, जिसके पश्चात बालक आधिकारिक रूप से वेदाध्ययन का अधिकारी बनता है।
संस्कार के उपरांत नवदीक्षित ब्रह्मचारी अब गुरुकुल में निवास कर वेद, वेदांग, उपनिषद, स्मृति, पुराण सहित ऋषि-प्रणीत समस्त ग्रंथों का गहन अध्ययन-अध्यापन करेंगे। साथ ही, वे सत्य सनातन वैदिक धर्म, राष्ट्र एवं गौ माता की सेवा तथा रक्षण के पुनीत मार्ग पर अग्रसर रहेंगे।
गुरुकुल का भावभीना स्वागत और आभार
गुरुकुल परिवार द्वारा सभी नवागत ब्रह्मचारियों का सपरिवार, सस्नेह स्वागत किया गया। शिक्षा, आवास तथा भोजन की समुचित व्यवस्था हेतु जो श्रद्धालुजन तन-मन-धन से सहयोग कर रहे हैं, उनके प्रति भी गुरुकुल परिवार ने गहन आभार व्यक्त किया। गुरुकुल ने स्पष्ट किया कि धर्मकार्य में योगदान करने वाले प्रत्येक सहयोगीजन का पुण्य अवश्य अक्षय रहेगा।
आचार्य भीमदेव जी का संदेश
आचार्य भीमदेव जी ने उपनयन संस्कार के अवसर पर ब्रह्मचारियों को आशीर्वचन देते हुए कहा —
“विद्या अर्जन का लक्ष्य केवल आत्मकल्याण नहीं, अपितु लोक कल्याण होना चाहिए। तप, अध्ययन और सेवा को जीवन का ध्येय बनाकर ही हम वैदिक परंपरा की ज्योति को उज्जवल बनाए रख सकते हैं।”
संस्कार का आध्यात्मिक उल्लास
पूरे गुरुकुल परिसर में वैदिक मंत्रोच्चारों की गूंज और आचार्यों के आशीर्वचनों के बीच एक अद्वितीय आध्यात्मिक वातावरण उपस्थित था। उपस्थित जनसमुदाय इस दिव्य आयोजन का साक्षी बन, गर्व और श्रद्धा से अभिभूत दिखा।
यह आयोजन एक बार फिर यह प्रमाणित करता है कि सनातन भारत की मूल चेतना — ‘गुरुकुल परंपरा’ — आज भी प्रज्ज्वलित है, और भविष्य के धर्मपथिक ब्रह्मचारियों के रूप में उसकी अखंड लौ जल रही है।
