ब्रह्मचर्य धर्म… व्रती नगरी पिंडरई (मंडला )… मुनिश्री 108 समता सागर महाराज जी

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रेवांचल टाईम्स – मंडला, आज पर्व का दसवाँ दिन है। दशलक्षणों में इसे ब्रह्मचर्य धर्म कहा है। आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्म स्वरूप आत्मा में चर्चा करना, रमण करना सो ब्रह्मचर्य है। असल में हमारी ऊर्जा इन्द्रिय-द्वारों से निरन्तर बाहर की ओर बह रही है जिससे हम क्षीण कमजोर हो रहे हैं। ब्रह्मचर्य उस ऊर्जा को केन्द्रित कर आत्म-स्फूर्ति प्रदान करता है। तेजस्विता और बल प्रदान करता है। सहज बहते हुये पानी में ज्यादा शक्तियाँ नहीं रहती, पर जब वही पानी बाँध बनाकर रोक लिया जाता है तो उसमें शक्तिशाली विद्युत का उत्पादन हो जाता है। पहली बात तो बहते हुये पानी को रोका जाए और दूसरी बात रुके हुए पानी को परिवर्तित कर पावर (शक्ति) का रूप दिया जाए। इस संदर्भ में एक बात और समझने जैसी है कि पानी कभी रुकता नहीं वह निरन्तर गतिमान रहता है। बाँध से रुके हुये पानी में लगता जरूर है कि पानी रुका है पर सत्यता यह है कि आगे न बहकर वह पानी ऊपर की ओर बढ़ने लगा है। पानी की तरह ही काम की गति है इसे बाह्य संयम के द्वारा रोककर ऊमर की ओर बढ़ाया जाता है अर्थात् काम के रूप में बहती ऊर्जा को ब्रह्मचर्य के ऊर्ध्वमुखी उपयोग से राम की शक्ति में परिवर्तित किया जाता है। यही एक ऐसा धर्म है जो हमारे बहिर्मुखी जीवन को अन्तर्मुखी करता है। बाहर के तमाम रस रूप गंध स्पर्श और साज संगीत को फीका करके अरूपी अस्पशी अतीन्द्रिय आत्म-तत्त्व की सौंदर्यानुभूति यह धर्म करा देता है। धर्म में लगा हुआ उत्तम विशेषण इसी आध्यात्मिक गहराई का परिचायक है।

मल से उत्पन्न, मलिनता का कारण, मलमूत्रादि को झराने वाला? दुर्गन्ध से सहित और ग्लानि को उत्पन्न करने वाले इस शरीर को देखता हुआ जो कामसेवन से विरत होता है वह ब्रह्मचर्य का धारी माना गया है। मन वचन काय और कुत कारित अनुमोदना रूप नवकोटि से विशुद्ध यह ब्रह्मचर्य परम सुखशांति का स्रोत है। इसी से निराकुलता का जीवन जिया जा सकता है। शुरुआत की दशा में गृहस्थ को स्वदार सन्तोष रहकर शेष सभी के प्रति माँ, बहिन, बेटी अथवा पिता, भाई, पुत्र का भाव रखना भी ब्रह्मचर्य व्रत ही है। इसे गृहस्थ-ब्रह्मचारी की संज्ञा दी गई है। क्योंकि इसमें भी गृहस्थ अपनी असीमित काम वासनाओं को सीमित कर एक पर ही आश्रित रहता है। यह व्यवस्था भारतीय संस्कृति की गृहस्थ धर्म की श्रेष्ठ व्यवस्था है। इसलिये इसे धर्म-विवाह कहा गया है और वंश परम्परा को चलाने के लिये किये गये मैथुन-कर्म को काम पुरुषार्थ की संज्ञा दी है। जिसमें दोनों प्राणी मर्यादित आचार-विचारों के बन्धन में बंधकर एक दूसरे के सुख-दुख में सहभागी रहते हैं।

धन्य है उन गृहस्थ दम्पतियों का जीवन जिन्होंने देह का नहीं देही का सम्मान किया। जिन्होंने सीप का नहीं मोती का, दीप का नहीं ज्योति का सम्मान किया। उनकी प्रीति, उनका प्रेम देहात्रित नहीं था बल्कि आत्म-प्रीति, आत्म-प्रेम था। ऐसे ब्रह्मचर्य व्रत के पालक ही जग में श्रेष्ठ सम्मान को प्राप्त करते है।

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